वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 वन निवासी जनजातीय समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधन संबंधी उन अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है, जिन पर ये समुदाय विभिन्न प्रकार की जरूरतों के लिए निर्भर थे, जिनमें आजीविका, निवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताएं शामिल हैं। औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में वनों के संरक्षण से संबद्ध वनों के साथ जनजातियों के सहजीवी संबंध के साथ-साथ उनके पारंपरिक ज्ञान तथा वनों पर उनकी निर्भरता को अधिनियमों, नियमों और सहयोगी वन प्रबंधन वन प्रबंधन नीतियों संबंधी नीतियों में, इस अधिनियम के लागू होने तक, नहीं दर्शाया गया था।
अधिनियम में स्व-खेती और आवास शामिल किये गये हैं जिन्हें प्रायः वैयक्तिक अधिकार और चराई, मछली पकड़ना और वनों में जलाशयों तक पहुंच जैसे सामुदायिक अधिकार, पीवीटीजी के लिए आवास अधिकार, चारागाही और घुमंतु समुदाय द्वारा पारंपरिक मौसम के अनुसार संसाधनों का उपयोग, जैव विविधता तक पहुंच, बौद्धिक संपदा और पारंपरिक ज्ञान के लिए समुदायिक अधिकार, पारंपरिक-प्रथागत अधिकारों की मान्यता और स्थायी उपयोग के लिए किसी भी सामुदायिक वन संसाधन की सुरक्षा, पुन:सृजन या प्रबंधन का अधिकार जैसे अधिकारों को सामुदायिक अधिकार माना जाता है । इस अधिनियम में विकासात्मक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए, समुदाय की बुनियादी जरूरतों के लिए वन भूमि आबंटन अधिकार भी प्रदान किया गया है। भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और निपटान अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार के साथ सहयोग के रूप में, एफआरए जनजातीय जनसंख्या को उनके पुनर्वास और निपटान हुए बिना बेदखल किए जाने से बचाता है।
यह अधिनियम ग्राम सभा, ग्राम सभा और अधिकार धारकों को जैव विविधता, वन्यजीवों, वनों, निकटवर्ती एकत्रण जलग्रहण क्षेत्रों, जलाशयों और अन्य पारिस्थितिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों के संरक्षण और संरक्षण की जिम्मेदारी के साथ-साथ इन संसाधनों या संस्कृति को प्रभावित करने वाली किसी भी विनाशक कार्रवाई को रोकने का उत्तरदायित्व सौंपता है। इस अधिनियम के तहत ग्राम सभा, जनजातियों की सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विरासत, जनजातीय जनसंख्या को स्थानीय नीतियों और उन्हें प्रभावित करने वाली योजनाओं के निर्धारण में निर्णायक भूमिका वाला एक उच्च अधिकार प्राप्त निकाय भी है।
इस प्रकार, यह अधिनियम, वनवासियों को वन संसाधनों की संरक्षा और उपयोग करने का अधिकार देता है कि वे वनों की रक्षा, संरक्षण और प्रबंधन उसी तरीके से करें जिसके वे पारंपरिक रूप से अभ्यस्त थे, वनवासियों को गैरकानूनी रुप से बेदखल किए जाने से बचाने और वन्य समुदायों को शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बुनियादी ढांचे इत्यादि की सुविधाओं का उपयोग करने के लिए बुनियादी विकास सुविधाएं भी प्रदान करते हैं।